जैन धर्म विश्व के सबसे प्राचीन दर्शन या पन्थों में से एक है। यह भारत की श्रमण परम्परा से निकला तथा इसके प्रवर्तक हैं 24 तीर्थंकर, जिनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) तथा अन्तिम व प्रमुख महावीर स्वामी हैं। जैन धर्म की अत्यन्त प्राचीनता करने वाले अनेक उल्लेख साहित्य और विशेषकर पौराणिक साहित्यो में प्रचुर मात्रा में हैं। जैन पन्थ की अत्यन्त प्राचीनता करने वाले अनेक उल्लेख अ-जैन साहित्य और विशेषकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं। श्वेतांबर व दिगम्बर जैन पन्थ के दो सम्प्रदाय हैं, तथा इनके ग्रन्थ समयसार व तत्वार्थ सूत्र हैं। जैनों के पान्थिक स्थल, जिनालय या मन्दिर कहलाते हैं।
जैन ईश्वर को मानते हैं जो सर्व शक्तिशाली त्रिलोक का ज्ञाता द्रष्टा है पर त्रिलोक का कर्ता नही | जैन धर्म में जिन या अरिहन्त और सिद्ध को ईश्वर मानते हैं। अरिहंतो और केवलज्ञानी की आयुष्य पूर्ण होने पर जब वे जन्ममरण से मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त करते है तब उन्हें सिद्ध कहा जाता है। उन्हीं की आराधना करते हैं और उन्हीं के निमित्त मंदिर आदि बनवाते हैं। जैन ग्रन्थों के अनुसार अर्हत् देव ने संसार को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अनादि बताया है। जगत का न तो कोई कर्ता है और न जीवों को कोई सुख दुःख देनेवाला है। अपने अपने कर्मों के अनुसार जीव सुख दुःख पाते हैं। जीव या आत्मा का मूल स्वभान शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानंदमय है, केवल पुदगल या कर्म के आवरण से उसका मूल स्वरुप आच्छादित हो जाता है। जिस समय यह पौद्गलिक भार हट जाता है उस समय आत्मा परमात्मा की उच्च दशा को प्राप्त होता है। जैन मत 'स्याद्वाद' के नाम से भी प्रसिद्ध है। स्याद्वाद का अर्थ है अनेकांतवाद अर्थात् एक ही पदार्थ में नित्यत्व और अनित्यत्व, सादृश्य और विरुपत्व, सत्व और असत्व, अभिलाष्यत्व और अनभिलाष्यत्व आदि परस्पर भिन्न धर्मों का सापेक्ष स्वीकार। इस मत के अनुसार आकाश से लेकर दीपक पर्यंत समस्त पदार्थ नित्यत्व और अनित्यत्व आदि उभय धर्म युक्त है।
रागद्वेषी शत्रुओं पर विजय पाने के कारण 'वर्धमान महावीर' की उपाधि 'जिन' थी। अतः उनके द्वारा प्रचारित धर्म 'जैन' कहलाता है। जैन पन्थ में अहिंसा को परमधर्म माना गया है। सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, अतएव इस धर्म में प्राणिवध के त्याग का सर्वप्रथम उपदेश है। केवल प्राणों का ही वध नहीं, बल्कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा का एक अंग बताया है। महावीर ने अपने शिष्यों तथा अनुयायियों को उपदेश देते हुए कहा है कि उन्हें बोलते-चालते, उठते-बैठते, सोते और खाते-पीते सदा यत्नशील रहना चाहिए। अयत्नाचार पूर्वक कामभोगों में आसक्ति ही हिंसा है, इसलिये विकारों पर विजय पाना, इन्द्रियों का दमन करना और अपनी समस्त वृत्तियों को संकुचित करने को जैन पन्थ में सच्ची अहिंसा बताया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवन है, अतएव पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का भी इस धर्म में निषेध है।
नरसिंहपुरा समाज की स्थापना रामसेन आचार्य ने नरसिंहपुर नगर में राजा नरसिंह सेन एवं सेठ भावड़ सहित उपस्थित विशाल जनसमुदाय के समक्ष विक्रम संवत् 102 में फाल्गुन सुद 13 रविवार दिवस प्रहर दो चढ़ते समय की थी। उस समय एक लाख श्रावकों एक सौ आठ कुल, सताईस गौत्र एवं देवियाँ भी स्थापित की। कालान्तर में नरसिंहपुरा समाज दो भागों दसा नरसिंहपुरा समाज एवं बीसा नरसिंहपुरा समाज में विभक्त हो गया यह क्यों, कब कैसे किस मतभेद को लेकर अलग हुए कोई प्रमाण पढ़ने में नहीं आया। दसा नरसिंहपुरा समाज की भट्टारक गादी प्रतापगढ़ व बीसा नरसिंहपुरा समाज की भट्टारक गादी सेमारी है। परम पूज्य भट्टारक यश कीर्ति जी के बाद भट्टारक परम्परा मेवाड़ वागड़ में अस्तित्व में नहीं है।
महासभा की स्थापना की रूपरेखा सन् 1971 में बनी। ऋषभदेव समाज के किसी विवादित विषय को हल करने के लिए मेवाड़ वागड़ के समस्त पंचों को आमंत्रित किया, सभी पंचों की उपस्थिति में विवादित विषय को सुलझा दिया गया वहीं पर मेवाड़-वागड़ के सभी ग्रामों का एक संगठन बनाने की प्रस्तावना भी बनी ।